दो दूनी चार' उपन्यास सुदूर ग्रामीण अंचल के एक सरकारी स्कूल की कहानी मात्र नहीं है। इस उपन्यास के माध्यम से रचनाकार ने शिक्षा व्यवस्था की बुनियाद का वह लेखा-जोखा प्रस्तुत किया है जो सरकारी दावों की धज्जियां उड़ाता हुआ ढहती हुई शिक्षा व्यवस्था की समस्या के मूल तक पहुंचने की एक कोशिश करता है। शिक्षा प्रशासन की मशीनरी में गहरे तक समाया हुआ भ्रष्टाचार और इन सबके भरोसे भविष्य से उम्मीद लगाए बैठे गाँव के छोटे-छोटे बच्चों की आँखों में पलते सपने एक जुगुप्साकारी विडंबना का सृजन करते हैं। उन सबके बीच उपन्यास का कथानायक कुछ बदलने की ज़िद लिए शिक्षक के रूप में ईमानदारी, कर्तव्यनिष्ठा और समर्पण की मिसाल बनता हुआ पाठक के सामने उभरता है। यह कितना दुखद है कि आज की राजनीतिक व्यवस्था अपने बुनियादी उत्तरदायित्व से इतना भटक चुकी है कि वह शिक्षा, जिस पर देश के भविष्य निर्माण का पूरा दारोमदार है, उसकी खोज-खबर लेने की उसे फुर्सत नहीं है। पूरी व्यवस्था सरकारी बाबुओं की निगरानी में मुनाफाखोरी के धंधे में बदल चुकी है। सरकारी योजनाओं को धरातल पर उतरने के मंसूबे केवल जनता के मन में बाँधे जा रहे हैं और सरकारी तंत्र नई-नई योजनाओं को मुनाफाखोरी की अपनी रोज उन्नत होती तकनीक के माध्यम से अपनी जेब में भर लेने को उद्यत है। 'दो दूनी चार' उपन्यास एक ऐसी चर्चा का गवाक्ष खोलना है जिसके दूसरी तरफ पसरी हुई गंदगी के कारण समाज ने उस ओर झाँकना भी बंद कर दिया है। उपन्यास का परिवेश ग्रामीण है और भाषा में ग्रामीण शब्दावली की अपनी छौंक है। 'दो दूनी चार' के कथा-संसार में डुबकी लगाना गाँव के पोखर में डुबकी लगाने का अनुभव है, जहाँ मिट्टी है
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