गौरव सोलंकी नैतिकता के रूढ़ खाँचों में अपनी गाड़ी खींचते-धकेलते लहूलुहान समाज को बहुत अलग ढंग से विचलित करते हैं। और, यह करते हुए उसी समाज में अपने और अपने हमउम्र युवाओं के होने के अर्थ को पकडऩे के लिए भाषा में कुछ नई गलियाँ निकालते हैं जो रास्तों की तरह नहीं, पड़ावों की तरह काम करती हैं। इन्हीं गलियों में निम्न-मध्यवर्गीय शहरी भारत की उदासियों की खिड़कियाँ खुलती हैं जिनसे झाँकते हुए गौरव थोड़ा गुदगुदाते हुए हमें अपने साथ घुमाते रहते हैं। वे कल्पना की कुछ नई ऊँचाइयों तक किस्सागोई को ले जाते हैं, और अकसर सामाजिक अनुभव की उन कंदराओं में भी झाँकते हैं जहाँ मुद्रित हिन्दी की नैतिक गुत्थियाँ अपने लेखकों को कम ही जाने देती हैं।इस संग्रह में गौरव की छह कहानियाँ सम्मिलित हैं, लगभग हर कहानी ने सोशल मीडिया और अन्य मंचों पर एक खास किस्म की हलचल पैदा की। किसी ने उन्हें अश्लील कहा, किसी ने अनैतिक, किसी ने नकली। लेकिन ये सभी आरोप शायद उस अपूर्व बेचैनी की प्रतिक्रिया थे, जो इन कहानियों को पढक़र होती है।..कहने का अंदाज गौरव को सबसे अलग बनाता है, और देखने का ढंग अपने समकालीनों में सबसे विशेष। उदारीकृत भारत के छोटे शहरों और कस्बों की नागरिक उदासी को यह युवा कलम जितने कौशल से तस्वीरों में बदलती है, वह चमत्कृत करनेवाला है।.. आर. चेतान्क्रन्ति
Bitte wählen Sie Ihr Anliegen aus.
Rechnungen
Retourenschein anfordern
Bestellstatus
Storno







