इस उपन्यास में 'हनुमान' एक अलौकिक पात्र के रूप में दशार्य गये हैं। ''यह क्या पार्थिव शिशु हैं? नहीं, केसरी!... यह आञ्जनेय, केसरीनन्दन, निस्संदेह सभी देवताओं और शक्तियों के पुंज सा ही अवतरित हुआ है- यह जन्मा नहीं है, केसरी ! आविर्भूत हुआ है।'' हनुमान स्वयं कहते हैं- ''मैं कहता हूं, राम की राह धरती देख रही है- आकाश देख रहा है। मुझे राम ने कहा- क्षीर सागर में कहा; तू जा, पृथ्वी पर जन्म ले-वानर योनि में और मेरी प्रतीक्षा कर...।'' हनुमान के हिसाब से राक्षसों के सामर्थ्य ने यह अनिवार्य कर दिया था कि वानर या तो विज्ञान की शक्ति प्राप्त करें और राक्षस बन जायें अथवा आर्यों की तप शक्ति प्राप्त कर अमृत पुत्र बन जायें। इसी प्रकार का आध्यात्मिक चिन्तन एवं रामभक्ति की पराकाष्टा यत्र-तत्र, सम्पूर्ण उपन्यास में दृष्टव्य है- ''मैं जन्मना-मरना नहीं चाहता। मैं मृत्यु को नहीं चाहता। रोग और शोक से भरे संसार को मैं नहीं चाहता, प्रभो!'' - शिव मुलके- ''किसे चाहता है तब?''- श्री राम को, शिव शम्भो! श्री राम को।''- हनुमान ने कहा। सार यह है कि इस उपन्यास में रामायणकालीन राक्षस, वानर एवं मानव संस्कृतियों की क्रिया, प्रतिक्रिया एवं अन्त क्रियाओं का विशद् विवेचन सृजित करने के साथ हनुमान के सम्पूर्ण चरित्र का विशद आख्यान है।
Bitte wählen Sie Ihr Anliegen aus.
Rechnungen
Retourenschein anfordern
Bestellstatus
Storno